Procedure of criminal case।आपराधिक मामले की प्रक्रिया।

दोस्तो आप का स्वागत है आज हम  इस लेख में जानेगे कि Procedure of criminal case का हिन्दी अर्थ आपराधिक मामले की प्रक्रिया से है।भारत में criminal Procedure को मुख्य तीन एक्टों के माध्यम से चलाया जाता है। यह तीनों Act निन्न प्रकार है जैसे- (1) The Indian Penal Code 1860 ( इस लेख में आगे इसे  “IPC” कहा जाएगा) (2) The Code of Criminal Procedure 1973 ( इस लेख में आगे इसे ” Cr.P.C”कहा जाएगा)(3) The Indian Evidence Act 1872 (इस लेख में आगे इसे “Evidence Act”कहा जाएगा)। यहाँ IPC में भिन्न भिन्न अपराधों का वर्गीकरण किया गया है और इस एक्ट में यह भी बताया गया है कि कौन सा अपराध संज्ञेय है या असंज्ञेय। इसके साथ ही साथ IPC यह भी बताती है कि कौन सा अपराध जमानती है या कौन सा अपराध गैर-जमानती है। इसके साथ ही साथ किसी अपराध को करने के लिए दोषी व्यक्ति को  कितनी सजा दी जायेगी। इसका बर्णन भी IPC में दिया गया है। जबकि Procedure of criminal case को Cr.P.C में बताया गया है कि अपराध हो जाने के बाद,अपराधी को कैसे सजा दी जायेगी या अपराधी अपने आप को कैसे निर्दोष सावित कर सकता है। यह पूरी प्रक्रिया Cr.P.C (दण्ड प्रक्रिया संहिता) के अन्तर्गत दी गयी है इस दण्ड प्रक्रिया के अन्तर्गत तीन मुख्य कृत्यकारी प्राधिकारी (Functionaries) के माध्यम से प्रक्रिया को क्रियान्वित किया जाता है,(1) पुलिस विभाग के माध्यम से,(2) अभियोजन पक्ष (लोक अभियोजकों) के माध्यम से (Public Prosecutors) (3) दाण्डिक न्यायालय (न्यायाधीशों) के माध्यम से (Magistrates) इनके अतिरिक्त प्रतिरक्षा के वकील (Defence Counsel) तथा जेल के प्राधिकारी (Jail Authorities) भी के क्रियान्वयन में अपना योगदान देते हैं। जबकिअभियोजन पक्ष पर यह दायुत्व होता है कि वह “Evidence Act” के माध्यम से गवाहो के द्वारा  मामले को Beyond reasonable doubt (अपराधी सभी उचित संदेह परे है) सावित करेगा और अभियुक्त को दोषी ठहरायेगा । यदि अभियुक्त  के खिलाख पर्याप्त साक्ष्य नहीं है तो अपराधी व्यक्ति को Benefit of doubt दे दिया जाऐगा और उसे दोष मुक्त कर दिया जाऐगा ।

What is the Principles in Procedure of criminal case।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में क्या मूलभूत सिद्धान्त है।

Procedure of criminal case के मूलभूत सिद्धान्तों के बारे में यह कहा जा सकता है कि मूलतः विधि के शासन (Rule of Law) एवं विधिशास्त्र के विभिन्न नियमों को भारतीय संविधान एवं दाण्डिक अधिनियमों के अन्तर्गत विशेष मान्यता प्रदान की गयी है अतः आपराधिक मामलों के विचारण की प्रक्रिया दो मूलभूत सिद्धान्तों पर आधारित है।

  1.  यह कि प्रत्येक व्यक्ति निर्दोष है, जब तक कि उसके विरूद्ध कोई अपराध साबित न हो जाय। इसको प्रतिपक्षी व्यवस्था (Adversary system) के नाम से भी व्यक्त किया जा सकता है।
  2.  यह कि अभियोजन पक्ष पर इस स्तर का सबूत का भार होता है कि वह बिना किसी शंका के अभियुक्त के विरुद्ध अपराध को स्थापित करे।

यह सबूत का भार किसी भी दशा में बचाव पक्ष की कमजोरी के कारण कम नहीं हो सकता है, संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार किसी भी व्यक्ति की वैयक्तिक स्वतंत्रता का हनन विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के बगैर नहीं किया जा सकता, परन्तु विधि के नियमों के अन्तर्गत न्याय एवं समाज के हित जिनको में इस स्वतंत्रता पर अंकुश अवश्य लगाया जा सकता है। दंड प्रक्रिया संहिता के समस्त प्रावधान उपरोक्त  सिद्धान्त के अनुकूल नियम प्रतिपादित करते हैं, चूंकि भारतीय न्यायिक व्यवस्था व्यक्तियों की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की अनुमति प्रदान करती है, इसलिए दंड अपराध प्रक्रिया संहिता अपराध की पुनरावृत्ति को रोकने के उद्देश्य से पुलिस अधिकारियों को एवं किन्हीं दशाओं में सामान्य व्यक्ति को भी शंकित अपराधियों को गिरफ्तार करने का सीमित अधिकार प्रदान करती है, परन्तु स्वतंत्रता के महत्व को देखते हुए अभियुक्त को विचारण के दौरान जमानत पर छोड़ने के लिए भी विभिन्न दशाओं एवं शर्तों के प्रावधान किये गये हैं। अपराधों के विचारण की प्रक्रिया को अवधानित करने के अतिरिक्त आकस्मिक दशाओं में अथवा एसे मामलों में, जिनमें तत्काल हस्तक्षेप आवश्यक होता है, कार्यपालक मजिस्ट्रेट को आदेश पारित करने की शक्तियां भी प्रदान की गयी है।

New Principle in Procedure of criminal case ।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में नए मूलभूत सिद्धान्त।
  •  प्राकृतिक न्याय के सर्वमान्य सिद्धान्तों को अधिमान्यता देते हुए अभियुक्त का ऋजुविचारण किया जा सके।
  •  आरोपण की प्रक्रिया के पूर्व भी अन्वेषण तथा अनुसंधान की कार्यवाही अविलम्ब पूर्ण कर जाये ।
  •  पैसावाले एवं वैभव सम्पन्न व्यक्तियों के अवांछित प्रभाव से निर्धन अभियुक्तों की रक्षा की जाये।

What is Change in Procedure of criminal Procedure Code-

भारत में नई Cr.P.C के द्वारा पुरानी Cr.P.C में कुछ परिवर्तन किये गये है

  1.  नई संहिता की प्रथम विशेषता न्याय पालिका व कार्यपालिका का पृथक्करण है।
  2.  विचारण के दौरान कारावास में व्यतीत हुए समय को न्यायालय द्वारा दिये गये दण्डादेश में से कम कर देने की व्यवस्था की गई।
  3.  किसी भी व्यक्ति को चाहे उसे वारण्ट के अधीन अथवा वारण्ट के बिना गिरफ्तार किया गया हो। गिरफ्तारी के कारणों से अवगत कराया जाना आवश्यक है।
  4.  अभियुक्त को निःशुल्क विधिक सहायता देने का प्रावधान किया गया।
  5.  जूरी विचारण को समाप्त किया गया।
  6. दो वर्ष तक के कारावास से दण्डनीय अपराधों का विचारण सम्मन मामलों की तरह किया जा सकता है।
  7.  संक्षिप्त विचारण के क्षेत्र को विस्तृत किया गया अब दो वर्ष तक के कारावास से दण्डनीय अपराधों का संक्षिप्त विचारण किया जा सकता है।
  8. सेशन विचारण में प्रारम्भिक जांच की व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया।
  9.  धारा 154 में अभिलिखित की जाने वाली F.I.R. की एक प्रति सूचनाकर्त्ता को निःशुल्क देने का प्रावधान किया।
  10.  यदि कोई पुलिस अधिकारी FIR दर्ज करने से इंकार करता है तो पीड़ित व्यक्ति को ऐसी सूचना डाक के द्वारा पुलिस अधीक्षक को भेजने का प्रावधान किया गया।
  11. अभियोजन पक्ष के साक्षी की परीक्षा हेतु जारी किये जाने वाले कमीशन की अवस्था में न्यायालय अभियोजन को अभियुक्त के व्ययों का जिसमें अधिवक्ता का शुल्क भी सम्मिलित है भुगतान करने का निर्देश दिया गया है।
  12. किसी व्यक्ति को गिरफ्तार करने से पहले धार41A का नोटिस दिया जाना।
  13. अनवेष्ण के दौरान पुलिस अधिकारी किसी भी व्यक्ति को पूछताछ के लिए धारा160 का नोटिस दे कर बुला सकताहै।

Cognizable and non Cognizable Offence in  Procedure of criminal case आपराधिक मामले की प्रक्रिया में संज्ञेय और असंज्ञेय अपराध 

संज्ञेय अपराध में पुलिस मजिस्ट्रेट के निर्देश के बगैर भी विवेचना (जांच) कर सकती है।असंज्ञेय अपराध की जांच शुरू करने के लिए पुलिस को अपराध प्रक्रिया संहिता 1973 (Cr.P.C.) की धारा 155 (2) के तहत मजिस्ट्रेट से अनुमति लेनी जरूरी है। जैसे कि दुष्कर्म पीड़िता का इलाज न करना आई.पी.सी. की धारा 166B  के तहत असंज्ञेय अपराध है। इसमें पुलिस वारंट के बगैर अस्पताल प्रभारी को गिरफ्तार नहीं कर सकती। Cr.P.C. की पहली अनुसूची (First Schedule) में I.P.C. के तहत संज्ञेय और असंज्ञेय अपराध की Table दी गयी  हैं। पुलिस को दी गई सूचना में अगर संज्ञेय अपराध के होने का पता चलता है तो Cr.P.C. की धारा 154 के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट FIR दर्ज करना जरूरी है ( ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार व अन्य (2013) 13 SC ALE (Scale) 559)। जैसे – रेप केस संज्ञेय अपराध है इसलिए रेप केस की जांच के लिए मजिस्ट्रेट से अनुमति लेने की जरूरत नहीं है। रेप केस  की FIR करना अनिवार्य है। यह Judgment आप के पढने के लिए Indiankanoon से लिया गया है।

Read Judgment

 Bailable and Non-Bailable Offence in Procedure of criminal case आपराधिक मामले की प्रक्रिया में जमानती और गैर-जमानती अपराध

Cr.P.C. की पहली अनुसूची(First Schedule)  में FIR के तहत बताए गए जमानती और गैर जमानती अपराध दिए गए हैं। जमानती अपराध में पुलिस अधिकारी जमानत दे सकता है। गैर जमानती अपराध में जमानत देना सक्षम अदालत का विवेकाधिकार है।तीन साल तक की सजा के ज्यादातर अपराध जमानती अपराध हैं।

When Police Report is mandatory in Procedure of criminal caseआपराधिक मामले की प्रक्रिया में कब में किस अपराध की पुलिस में रिपोर्ट कराना जरूरी है?

POCSO Act 2012 की धारा 19 के तहत बच्चों के खिलाफ होने वाली यौन हिंसा की जानकारी स्थानीय पुलिस या स्पेशल जुवेनाइल पुलिस यूनिट को देना अनिवार्य है। यदि यौन हिंसा या बलात्कार का शिकार वयस्क हो तो अपराध की जानकारी रखने वाले हर व्यक्ति के लिए इस अपराध की रिपोर्ट करना अनिवार्य नहीं है, लेकिन दंड प्रक्रिया संहिता (Cr.P.C)की धारा 357Cअस्पतालों के लिए ये अनिवार्य बनाती है कि अगर ऐसे मामले उनके पास आएं तो वो पुलिस को उनकी जानकारी दें।

What is the FIR in Procedure of criminal caseआपराधिक मामले की प्रक्रिया में FIR किसे कहते हैं ?

FIR उस प्रथम सूचना रिपोर्ट को कहते हैं जिसे संज्ञेय अपराध की जानकारी रखने वाला कोई व्यक्ति Cr.P.C. की धारा 154 के तहत पुलिस को देता है। यह लिखित रूप में दी जा सकती है या फिर मौखिक तौर पर भी पुलिस अधिकारी को दी जा सकती है। FIR पर सूचना देने वाले के हस्ताक्षर होने चाहिए। FIR दर्ज कराने के लिए पुलिस को अपराध घटित होने के तथ्यों के बारे में सूचना देना जरूरी है। प्रक्रिया विधि के तहत पुलिस अपराध दर्ज करने के बाद जांच शुरू कर सकती है।

FIR in Procedure of criminal case आपराधिक मामले की प्रक्रिया में FIR 

प्रथम सूचना रिपोर्ट ( FIR) दर्ज कराने के लिए कृपया निम्न बातो का ध्यान रखा जाना चाहिए ।

  • जहां तक संभव हो सके, तो स्वमं पीड़ित व्यक्ति के द्वारा ही FIR लिखबानी चाहिए। कानून में कोई भी व्यक्ति को जिसे संज्ञेय अपराध के घटित होने की समुचित जानकारी हो, FIR लिख वा सकता है। जबकि किसी भी व्यक्ति को यदि टूटी-फूटी जानकारी प्राप्त होई है या फिर किसी भी व्यक्ति को सुनी-सुनाई बातें या उडती हुई चर्चा से सूचना मिली है तो ऐसी सूचना FIR के लिए पर्याप्त सूचना नहीं होती है।
  • सामान्य तौर पर एक मामले में सिर्फ एक ही FIR होती है और FIR के तथ्य मुकदमें के विचारण में पुष्टि योग्य होने चाहिए। इसलिए सुझाव दिया जाता है कि जहां तक संभव हो पीड़ित व्यक्ति को स्वयं ही FIR लिखबानी चाहिए, ताकि सभी जरूरी तथ्यों का बिवरण सही प्रकार से FIR में दिया जा सके।
  • पुलिस के पास पहुंचने में देरी न करें। अपराध घटित होते ही जल्द से जल्द पुलिस के पास पहुंचे। अगर FIR दर्ज कराने में देरी होती है तो पुलिस को देरी का कारण बताएं। अपराध की जल्दी सूचना देने से आपका केस मजबूत होगाऔर देरी से FIR दर्ज कराने के आधार पर आपका केस खराव हो सकता है।
  •  संज्ञेय अपराध में पुलिस को FIR दर्ज करना अनिवार्य है।
  • FIR के बाद, प्रारंभिक जांच की गुंजाइश सिर्फ उन्हीं मामलों तक सीमित है, जिसमें पुलिस को प्राप्त सूचना से यह स्पष्ट नहीं होता कि संज्ञेय अपराध हुआ है या अंसज्ञेय। इसके बाद यह जांच सिर्फ सूचना से संज्ञेय या असंज्ञेय अपराध घटित होने का पता चलने तक सीमित रहती है न कि उसे प्रमाणित करने तक।
  • रेप के मामले व महिलाओं के साथ छेडछाड के मामले या एसिट अटैक के मामले में जहाँ पुलिस को FIR दर्ज करना अनिवार्य हैऔर कोई  पुलिस अधिकारी या लोकसेवक ऐसे अपराधों में FIR दर्ज करने में नाकाम रहता है या उसने चूक हो जाती है तो ऐसा पुलिस अधिकारी या लोकसेवक IPC की धारा 166 A में न्यूनतम 6 माह का कारावास दिया जा सकता है जिसको बढ़ा कर 2 वर्ष तक का कारावास और जुर्माना  से भी दण्डित किया जा सकता है।धारा 166 Aअपराध विधि संशोधन कानून के तहत  जोड़ी गई है।
  • रेप के मामले व महिलाओं के साथ छेडछाड के मामले या एसिट अटैक या बच्चों के मामले में FIRआवश्यक रूप से महिला पुलिस अधिकारी या महिला अधिकारी दर्ज करेगी। सूचना दर्ज किए जाने की वीडियो रिकॉर्डिंग की जाएगी
  • पुलिस को अपराध की सूचना दें, चाहे पीड़ित व्यक्ति को ये न मालूम हो कि किया गया अपराध किस धारा मेंआता है। पीड़ित व्यक्ति को अपने खिलाफ हुए अपराधों को जानने का इंतजार करने की जरूरत नहीं है स्थानीय पुलिस के समक्ष जब अपराध के तथ्य पेश किए जाते हैं तो वह हमेशा निश्चित दंडनीय प्रावधान जोड़ लेती है।
  • आपातकालीन स्थिति में पीड़ित व्यक्ति को यह सुनिश्चित करने की या यह जानने की जरूरत नहीं है कि अपराध संज्ञेय है या नहीं। ,सूचना से तथ्यों की जानकारी होने पर जैसे ही संज्ञेय अपराध के होने का पता चलता है पुलिस मामले की जांच करने के लिए बाध्य है। अगर आपके पास समय है, तो आप पुलिस को लिखित सूचना दें और पुलिस को लिखित सूचना देते समय शिकायत की प्रतिलिपि पर प्राप्ति का अनुमोदन ले लें ताकि पुलिस को सूचना देने के बारे में कोई विवाद न रहे।
  • आपात स्थिति में नजदीक के थाने पहुंचें और FIR दर्ज करने के लिए अपराध की पूरी जानकारी थाने के भारसाधक अधिकारी को दे। चाहें वह अपराध, उस थाना क्षेत्र के तहत न भी घटित हुआ हो, तो भी संज्ञेय अपराध में थाने के भारसाधक अधिकारी द्वारा FIR लिखी जायेगी।इस FIR को ही  जीरो FIR के नाम से जाना जाता हैऔर बाद में ऐसी FIR की जांच को स्थानीय क्षेत्राधिकार रखने वाले थाने को सौंप दी जाएगी।
  • वास्तव में यदि आपात स्थिति न हो तो पीड़ित व्यक्ति को उसी थाने से संपर्क करना चाहिए जिसके अधिकार क्षेत्र में अपराध हुआ हो ताकि जांच में देरी न हो।
  • जब भी तत्काल मदद की जरूरत हो पुलिस नियंत्रण कक्ष को 112 नम्वर पर  फोन करें ( जो पहले 100 नम्वर होता था) जब भी संरक्षण, इलाज या बचाव के लिए आपको पुलिस की तत्काल मदद की जरूरत हो आपको पहले पुलिस नियंत्रण कक्ष (P.C.R.) को फोन करना चाहिए (न कि स्थानीय थाने को)
  • P.C.R. को किए गए फोन रिकॉर्ड होते हैं और आपात स्थिति में पीड़ित की रक्षा कर उसे चिकित्सीय जांच के लिए ले जाने या तत्काल हिंसा रोकने के लिए पुलिस टीम मौके पर भेजी जाती है।स्थानीय थाने को भी सूचना दी जाती है।
  • पीड़ित व्यक्ति के द्वारा P.C.R. को किए फोन  का रिकॉर्डपुलिस नियंत्रण कक्ष में सुरक्षित रहता है, जिसका उपयोग पीड़ित व्यक्ति  Cr.P.C. की धारा 156 (3) के तहत FIR दर्ज कर पुलिस जांच या अन्वेष्ण का निर्देश मांगने वाली मजिस्ट्रेट के समक्ष दी गई अपनी अर्जी में कर सकती है।
  • अगर पीड़ित व्यक्ति  विकलांग है और अपराध यदि अस्थायी या स्थायी रूप से शारीरिक या मानसिक तौर पर अशक्त या विकलांग के खिलाफ हुआ है तो FIR उसके घर पर या उसकी सुविधा व पसंद की जगह दु-भाषिया अथवा विशेष प्रशिक्षक की मौजूदगी में दर्ज की जाएगी।
  • जबकि यह जरूरी है कि संज्ञेय अपराध की सूचना पर पुलिसFIR दर्ज करेगी,लेकिन संभव है कि FIR दर्ज करने की औपचारिकताएं न पूरी की जाएं, इसलिए ध्यान रखें कि FIR दस्तावेज के अंत में हस्ताक्षर करें। अगर शिकायतकर्ता अनपढ़ है।तो वे सुनिश्चित करें कि FIR का दर्ज ब्योरा उसे पढ़ कर सुनाया जायेगा।
  • प्रभारी FIR में अपना नाम और पद जोड़ेगा; FIR  की एक प्रति शिकायतकर्ता  को निशुल्क दी जाएगी।
What is important Information for FIR in Procedure of criminal case।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में FIR करने में क्या-क्या सूचना देनी चाहिए?
  1. FIR में अपराध की, दिनांक,  समय और  स्थान का एकदम सही जिक्र होना चाहिए। अपराध के तरीके का भी जिक्र होना चाहिए, जिसमें अगर अपराध शरीर के खिलाफ हुआ है तो शरीर के उस भाग को भी शामिल करें जो जख्मी हुआ है और प्रयुक्त हथियार का भी जिक्र करें। इसके साथ ही अगर जानते हो तो अपराधी का नाम बताएं और अपराध के गवाह व्यक्तियों के नाम भी दें दिया गया यह ब्योरा आपकी चिकित्सीय जांच या अभियुक्त की चिकित्सीय जांच के दौरान पुष्ट हो सकता है।
  2. अभियुक्त का नाम न मालूम होने की स्थिति में उसकी पहचान किए जाने लायक पर्याप्त ब्योरा दें, अगर ब्योरा उपलब्ध हो तो देना चाहिए। जैसे कि उम्र, लिंग (पुरुष या स्त्री). शारीरिक गठन या चेहरे आदि के पहचान चिन्ह, अथवा बातचीत के सामान्य तौर तरीके से हटकर बोलने का जो ढंग रहा हो बताएं। इसी तरह अगर कोई अनजान व्यक्ति अपराध का गवाह है तो उसकी पहचान करने लायक सूचना दी जानी चाहिए जिसे जांच के दौरान पुलिस पुष्ट कर सके।FIR में अभियुक्त के खिलाफ दंडात्मक कानूनी कार्रवाई करने की बात कही गई होनी चाहिए।
  3. पुलिस को, पीड़ित व्यक्ति के द्वारा अपना पूरा पता व मोबाइल नंबर देना चाहिए ताकि यह संकेत जाए कि आप पुलिस की मदद करने की इच्छा रखते हैं।अगर उपलब्ध हो तो एफ. आई. आर. में अभियुक्त का पूरा ब्योरा देना चाहिए ताकि उसकी पहचान हो सके, लेकिन उसे पकड़े जाने या गिरफ्तार किए जाने की जानकारी FIR का हिस्सा होना जरूरी नहीं है।
  4. जहां तक संभव हो FIR में घटना का विस्तृत ब्योरा होना चाहिए। FIR में तथ्यों का विस्तार से उल्लेख करें क्योंकि FIR  दर्ज कराने के बाद पीड़ित व्यक्ति के बयान में आया बदलाव, यहां तक कि थोड़ा सा भी अंतर भी विरोधाभास माना जाएगा।
  5. आपात स्थिति में, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि आपने दंडनीय धाराएं बताई हैं कि नहीं। अगर पीड़ित व्यक्ति को कानून और दंडनीय धाराएं मालूम हैं तो आप FIR में उन्हें शामिल कराने के लिए पुलिस से उनका जिक्र कर सकते हैं। अगर पीड़ित व्यक्ति के पास समय है और पीड़ित व्यक्ति  पुलिस के पास जाने से पहले वकील या कानूनी सलाह ले सकते हैं तो पीड़ित व्यक्ति को यह ब्योरा पता कर लेना चाहिए। हालांकि पीड़ित व्यक्ति से यह उम्मीद नहीं की जाती कि उसको विभिन्न दंण्डिक धाराएंँ मालूम होंगी और वह  इसका पता लगाने में अतिरिक्त समय न लगाएं। FIR में अपराध की धाराएं पीड़ित व्यक्ति के वास्तविक बयान के आधार पर शामिल की जाती हैं और जब आपका बयान पूरा हो जाता है तो पुलिस या फिर मजिस्ट्रेट भी अभियुक्त को रिमांड पर भेजते समय उस पर लागू होने वाले विशिष्ट सही और पूर्ण दंडनीय प्रावधानों का जिक्र करता है।
  6. FIR में बढ़ा-चढ़ा कर या गलत बयान नहीं देने चाहिए। विचारण के दौरान पीड़ित व्यक्ति से क्रिरोस या जिरह होगी और बढ़ा चढ़ा कर कही गई बात या गलत बयान, यहां तक कि छोटा सा मुद्दा भी पीड़ित व्यक्ति के मुकदमे के लिए घातक साबित हो सकता है।
Can Additional Facts be Given after written FIR in Procedure of criminal case ।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में FIR दर्ज कराने के बाद क्या अतिरिक्त तथ्य दिये जा सकता है?

हाँ, यदि FIR में अपराध के बारे में सारे तथ्य नहीं दिये गये है तो Cr.P.C. की धारा 164 के अलावा धारा 161 के तहत बयान दर्ज करा सकती है और उसमें घटना का समग्र रूप से पूरा विस्तृत ब्योरा दे सकती हैं। Cr.P.C. में अगर अपराध का सही ब्योरा दर्ज नहीं है तो उसे ठीक कराने का कानून में कोई उपाय नहीं है। एक ही विकल्प संभव है कि सुप्रीम कोर्ट या हाईकोर्ट में रिट दाखिल की जाए। हाईकोर्ट को Cr.P.C. की धारा 482 के तहत अन्न शक्तियों  प्राप्त है इनका इस्तेमाल करते हुए पूर्ण न्याय के लिए हस्तक्षेप करने का अनुरोध किया जा सकता है। हालांकि FIR को सही कराने के लिए हाईकोर्ट के क्षेत्राधिकार में जाने से पैसा और समय दोनों ज्यादा लगेंगे। पीडित को ऐसी स्थिति में वरिष्ठ पुलिस अधिकारी से मिलने की सलाह दी जाती है। वरिष्ठ अधिकारी चाहे तो निम्नलिखित बातों पर विचार करने के लिए दिशा निर्देश दे सकते है।जैसे-

  • वरिष्ठ पुलिस अधिकारी विचार कर सकता है कि क्या ऐसी FIR में किसी प्रकार की सुधार की जरूरत है।
  • अधीनस्थ को निर्देश दे सकता है कि वह इस तरह जांच करें कि FIR में हुई गलती या नहीं दी गई जानकारी का नकारात्मक प्रभाव कम हो जाए।
  • जांच या अन्वेष्णअधिकारी को जांच करने के अपने विशिष्ट अनुभव बता सकता है
  • पीड़ित व्यक्ति FIR में दिए गए किसी भी बिंदु को Cr.P.C. की धारा 161 के बयान में विस्तार से बता सकती हैं लेकिन वह FIR में दर्ज बयान को बदल या ठीक नहीं कर सकता।

Procedure of criminal case if Victim decided not immediately lodge FIR. What precaution he should Takeआपराधिक मामले की प्रक्रिया में यदि पीड़ित ने तत्काल FIR न कराने का निर्णय लिया है तो कौन सी सावधानियां रखनी चाहिए?

यदि पीड़ित व्यक्ति ने तत्काल FIR न कराने का निर्णय लिया है या पीड़ित व्यक्ति पुलिस के पास न पहुँच की परिस्थित में है तो  अपराध घटित होने से संबंधित जरूरी तथ्य, जिस पर पीड़ित व्यक्ति भरोसा करता हो या पीड़ित व्यक्ति का नजदीकी विश्वासपात्र हो उसे बताएं। अगर तत्काल पुलिस के पास न जाने का फैसला किया है तो निम्नलिखित कदम उठाएं-

  1. पीड़ित व्यक्ति को फिर भी अपराध का लिखित ब्योरा दर्ज करना चाहिए। अपराध के बारे में ऐसा ब्योरा दर्ज करना महत्वपूर्ण है, क्योंकि अगर भविष्य में कानून का सहारा लेने का फैसला किया जाता है तो उस समय पीड़ित व्यक्ति के द्वारा अपराध के बारे में लिखित सबसे पहला ब्योरा पेश कर सकती है। अपराध के पहले लिखित ब्योरे से ये पता चलेगा कि पीड़ित व्यक्ति के द्वारा पहले लिखित आपने तथ्यों को बदला नहीं गया है।
  2. पीड़ित व्यक्ति जरूरी तथ्य, तारीख और समय व अपराध घटित होने का ब्योरा रिकॉर्ड पर पेश करना चाहिए। अच्छा हो कि घटना की रिपोर्ट ईमेल, टेलीग्राम या डाक द्वारा किसी संबंधी या मित्रको भेजें। अगर अपराध को लिखित में दर्ज करने का विकल्प उपलब्ध नहीं है, तो किसी रिश्तेदार या मित्र से खुद मिलकर उसे बताएं या फिर टेलीफोन अथवा मोबाइल फोन के जरिये उसे बताएं।
  3. इसके बाद यदि पीड़ित व्यक्ति के शरीर पर दिखाई देने वाली कोई चोट है और पीड़ित व्यक्ति का चिकित्सीय परीक्षण नहीं हुआ है तो उस चोट की फोटो खींच लें। फोटो लेने की तारीख साक्ष्य के तौर पर उपलब्ध होगी। आप इसके लिए उस दिन की तारीख का अखबार बैकग्राउंड में या चोट के बगल में रख सकती हैं और फोटो के निगेटिव सुरक्षित रखें तो यह भी साक्ष्य में काम आयेगा।

If FIR not Written by Police in  Procedure of criminal caseआपराधिक मामले की प्रक्रिया में यदि पुलिस FIR न लिखे।

यदि पीड़ित व्यक्ति की शिकायत के बावजूद भी  पुलिस FIR दर्ज न करें तो पीड़ित व्यक्ति को उनके फैसले की तत्काल जानकारी होनी चाहिए। FIR दर्ज न होने की स्थिति में पीड़ित के निम्नलिखित विकल्प है-

  • पीड़ित व्यक्ति को वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के पास जाना चाहिए ।
  • थाना प्रभारी के FIR दर्ज करने से मना कर देने की स्थिति में पीड़ित व्यक्ति Cr.P.C. की धारा 154 (3) के तहत पुलिस अधीक्षक के पास जा सकता है। वह सूचना के तथ्य लिखित में डाक के जरिए पुलिस अधीक्षक को भेज सकता है, अधिकारी स्वयं मामले की जांच कर सकता है या अपने अधीनस्थ अधिकारी को जांच का आदेश दे सकता है। पुलिस अधीक्षक से मिलकर FIR दर्ज करने की जरूरत समझा सकता है।
  • पुलिस जांच के लिए मजिस्ट्रेट का निर्देश पुलिस रिपोर्ट पर अभियुक्त के खिलाफ अभियोजन शुरू करने का अधिकार रखने वाला मजिस्ट्रेट स्थानीय पुलिस को मामले की जांच का आदेश दे सकता है।
  • पीड़ित मजिस्ट्रेट के समक्ष प्राइवेट शिकायत दाखिल कर अभियोजन पक्ष का स्थान लेकर अभियुक्त को अभियोजित (प्रॉसीक्यूट) कर सकता है। Cr.P.C. की धारा 156 (3) के तहत इस अधिकार का इस्तेमाल करने की शर्त है कि घटित अपराध संज्ञेय होना चाहिए। ये ध्यान रखें कि मजिस्ट्रेट के समक्ष दी गई अर्जी के तथ्य, अगर स्वीकार हो गए तो FIR में तब्दील हो जाएंगे और इसलिए अपराध घटित होने का ब्योरा अर्जी दाखिल करने तक की तिथि का दिया जाना चाहिए।
  • संज्ञान लेने से पहले विवेचना (इन्वेस्टीगेशन) के निर्देश मजिस्ट्रेट अपराध पर संज्ञान लेने से पहलेCr.P.C. की धारा 156 (3) की शक्ति का इस्तेमाल कर सकता है। कहने का मतलब है कि मजिस्ट्रेट पुलिस को विवेचना का आदेश दे सकता है या जांच के उद्देश्य से सर्च वारंट जारी कर सकता है।
  • संज्ञान लेने के बाद Cr.P.C. की धारा 202 में जांच / अन्वेष्ण का निर्देश अगर मजिस्ट्रेट Cr.P.C. की धारा 190 में अपराध पर संज्ञान ले लेता है तो वह-(a) लिखित शिकायतपत्र में उपल्ध साक्ष्यों के आधार पर प्रक्रिया शुरू कर  स्वयं मामले की Inquiry   सकता है।(b) पुलिस अधिकारी को विवेचना या जांच या अन्वेष्ण का आदेश दे सकता है या(c) किसी अन्य व्यक्ति को जांच या अन्वेष्ण करने का आदेश दे सकता है।
  • हालांकि अगर अपराध विशेष तौर पर सत्र अदालत द्वारा विचारणीय है  तो संज्ञान लिए जाने के बाद की स्थिति में मजिस्ट्रेट पुलिस जांच याअन्वेष्ण का आदेश नहीं दे सकता।
 Complaint in Procedure of criminal case।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में शिकायत पत्र।

निजी शिकायत दाखिल करते समय निम्न बातों का ध्यान रखा जा सकता है। स्थानीय पुलिस की प्रतिक्रिया बतानी होगी अगर आवेदनकर्ता पहले स्थानीय पुलिस के पास जा चुका है और पुलिस ने FIR दर्ज करने से मना कर दिया है तो वह क्षेत्राधिकार वान मजिस्ट्रेट का न्यायिक क्षेत्राधिकार स्पष्ट रूप से निश्चत होना चाहिए। जब भी अपराध घटित हो आप स्थानीय माने के किसी भी अधिकारी से पूछ सकते हैं कि यह मामला किस मजिस्ट्रेट के न्यायिक क्षेत्राधिकार मेंआएगा। यह भी बताएं कि संज्ञेय अपराध घटित हुआ है अर्जी में संज्ञेय अपराध घटित होने का स्पष्ट उल्लेख होना चाहिए और उसके समर्थन में जो भी सामग्री है वह अर्जी के साथ दाखिल करें। समर्थन में हलफनामा दें क्योंकि यह फैसला मजिस्ट्रेट का होगा कि वह Cr.P.C. की धारा 156 (3) के तहत दी गई अर्जी पर आवेदनकर्ता या अन्य गवाहों के बयान दर्ज किए बगैर स्थानीय पुलिस को मामले की जांच का आदेश दे कि नहीं, इसलिए अर्जी में कही गई बातों की सत्यता के प्रति अदालत को भरोसा दिलाने के लिए अर्जी के समर्थन में अपना हलफनामा लगाएं। स्पष्ट हो अभियोजन का केस शिकायत में दिया गया अभियोजन का पूरा मामला स्पष्ट होना चाहिए। उसमेंFIR से ज्यादा ब्योरा दिया जाना चाहिए। अभियोजन के मामले में संज्ञेय अपराध के घटित होने का पता चलना चाहिए। शिकायत में यह विशेषतौर पर बताया जाए कि मामले के कौन से भाग को किस साक्ष्य के जरिये साबित किया जाएगा।गवाहों और दस्तावेजों की सूची मजिस्ट्रेट के समक्ष गवाहों को बुलाने और दस्तावेजों को पेश करने के लिए दो सूचियां दी जानी चाहिए। (1) गवाहों की (2) समर्थन में पेश किए जाने वाले दस्तावेजों की।

Closure Report Procedure of criminal case ।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में क्लोजर रिपोर्ट ।

जांच पूरी होने पर पुलिस या तो Cr.P.C. की धारा 169 में क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करती है या फिर Cr.P.C. की धारा 173 में आरोपपत्र (चार्जशीट दाखिल करती है। क्लोजर रिपोर्ट वह रिपोर्ट होती है जिसमें पुलिस कहती है कि वह केस बंद कर रही है।जांच पूरी होने के बाद जब पुलिस अंतिम रिपोर्ट या क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करे तब पीडित के पास उस क्लोजर रिपोर्ट को स्वीकार करने का विरोध करने का अधिकार है। जब भी क्लोजर रिपोर्ट फाइल होगी, अदालत अपराध की पहली सूचना देने वाले को नोटिस भेजेगा। पीडित नोटिस प्राप्त होने पर क्लोजर रिपोर्ट का विरोध करेंगे और पुलिस के दावों का जवाब देंगे। केस मजबूत करने के लिए अगर संभव हो तो प्रोटेस्ट याचिका के साथ हलफनामे संलग्न करें। जैसे कि अगर आप निजी डॉक्टर के पास गए थे तो उसकी रिपोर्ट को हलफनामे की तरह संलग्न करें। कोर्ट या तो (1) क्लोजर रिपोर्ट स्वीकार कर लेगा या (2) अपराध पर संज्ञान लेगा या फिर।(3) आगे जांच का आदेश देगा।अगर अदालत अपराध का संज्ञान लेने में नाकाम रहती है तो Cr.P.C.की धारा 397 के तहत पुनः अवलोकन (रिवीजन) दाखिल कर सकते हैं।

Investigation in Procedure of criminal case।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में जांच या अन्वेष्ण।

 आरोप पत्र दाखिल करने के पहले की स्थिति विवेचना (अन्वेषण) कहलाती है। Cr.P.C. के अध्याय XII में जांच की प्रक्रिया (तरीका) दी गई है।यह धारा 154 से 176 तक है।मजिस्ट्रेट द्वारा प्राइवेट शिकायत पर Cr.P.C. की धारा 202 (1) के तहत दिए गए जांच के निर्देश का मतलब कंप्लेंट केस में अभियोजन को मदद करना है, इसके पूरा होने पर आरोपपत्र दाखिल नहीं होता।जांच के महत्वपूर्ण बिन्दु है

  1. अगर जरूरत हो तो पीड़िता और अभियुक्त की चिकित्सीय जांच,
  2. Cr.P.C. की धारा 161 में गवाहों के अहस्ताक्षरित बयान दर्ज करना। आप इस धारा में बयान दर्ज कराते समय FIR को और विस्तार से बता सकती हैं।
  3. अगर जरूरत हो तो अभियुक्त को गिरफ्तार करना और पुलिस रिमांड लेकर उससे हिरासत में पूछताछ करना अपराध से जुड़ी सामग्री बरामद करना।
  4. Cr.P.C.की धारा 164 के तहत मजिस्ट्रेट के समक्ष गवाहों के बयान दर्ज कराना ताकि वे धारा 161 के तहत दर्ज कराए गए अपने बयान साक्ष्य में पुष्ट कर सकें। मजिस्ट्रेट के समक्ष धारा 164 के तहत दिया गया  बयान, धारा 161 के तहत दर्ज कराए गए बयान से विपरीत नहीं होना चाहिए। बचाव पक्ष का वकील आपका केस खराब करने के लिए बयान में विरोधाभास दिखाने की कोशिश करेगा, इसलिए बयान देते समय एकदम स्पष्ट रहे ।
  5. केस से जुड़ी सामग्री और दस्तावेजों की तलाशी व जप्ती  करगा और
  6. जरूरी सावधानियां बरतते हुए संबध्दित सामग्री को फोरेंसिक जांच के लिए भेजना और विशेषज्ञ की राय एकत्र कर उसे पुलिस रिपोर्ट के साथ अदालत में पेश करना ।
  7. कमी-कभी, अभियुक्ता स्वेच्छा से Cr.P.C की धारा 164 में मजिस्ट्रेट के समक्ष अपने अपराध को स्वीकार कर लेता है वह अपराध स्वीकृतिअभियुक्तऔर सह अभियुक्तों को फंसाने वाले  (इनक्रिमिनेटिंग) साक्ष्य का हिस्सा होगी जो उसके और सहअभियुक्तों के खिलाफ इस्तेमाल हो सकता है।

महिलाओं से जुडे अपराधों में विशेष प्रक्रिया का पालन होता है, जो इस प्रकार है:

  • महिलाओं से जुडे अपराध में Cr.P.C की धारा 161 का बयान महिला पुलिस अधिकारी दर्ज करेगी ।पुलिस महिला को उसके घर के अलावा किसी अन्य स्थान पर पूछताछ के लिए आने को बाध्य नहीं कर सकती । धारा 161 के बयान अहस्ताक्षरित होते हैं।
  • Cr.P.C की धारा 164 में बयान दर्ज करने की अनिवार्यता पीडिता का बयान Cr.P.C. की धारा 164 में मजिस्ट्रेट के द्वारा दर्ज किया जाना अनिवार्य है। अगर पीडिता अस्थायी या स्थायी तौर पर शारीरिक या मानसिक रूप से अक्षम है तो मजिस्ट्रेट इसके लिए दुभाषिये या विशेष रूप से प्रशिक्षित व्यक्ति की मदद ले सकता है। बयान की वीडियो रिकार्डिंग होनी चाहिए ताकि ऐसे मामले में विचारण के दौरान उसे पीड़िता के इक्जामिनेशन इन चीफ (मुख्य परीक्षा) के रूप में लिया जा सके।
  • बिना देरी के चिकित्सीय परीक्षण व इलाज. IPC की धारा 326A. 376, 376A, 376B, 376C, 376D या 376E के तहत हुए अपराध की पीडित को इलाज या प्राथमिक उपचार देने में देरी करना दंडनीय अपराध है। पीड़िता का चिकित्सीय परीक्षण उसकी सहमति या उसकी तरफ से सहमति देने में सक्षम व्यक्ति की सहमति से किया जाएगा।
  • जांच के दौरान पीडिता द्वारा पुलिस को की गई मदद का रिकॉर्ड रखें पुलिस स्वतंत्र है वह आपके द्वारा दिए गए हर सुझाव को मानने के लिए बाध्य नहीं है। हालांकि, अगर आपके पास इस बात का रिकॉर्ड होगा कि आपने कैसे पुलिस की मदद की और उसने कैसे सुसंगत सामग्री को नजरअंदाज किया तो आप उस सामग्री को ट्रायल के दौरान अदालत में पेश कर सकती है। सुझाए गए गवाहों के नाम, केस प्रोपर्टी की बरामदगी के लिए दिए गए सुराग रखें। अगर जांच अधिकारी आपके द्वारा दिए गए सुझाव व प्रस्ताव खारिज कर दें तो बिना देरी किए पुलिस अधीक्षक के पास पहुंचे और सुधार के उपाय की मांग करें।
Medical Examination in Procedure of criminal case।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में चिकित्सीय परीक्षण।

डॉक्टर पीडित व्यक्ति से प्रश्न पूछेंगे जो घटना के सम्बंध में होगी और ऐसे प्रश्न केस के लिए वे आवश्यक हैं। जैसे कि:

  1. अपराध की तारीख, समय और स्थान क्या था। घटना का पूरा वर्णन।  क्योंकि अगर यह ब्योरा दर्ज नहीं हुआ तो यह पीडित व्यक्ति गवाही को कमजोर कर सकता है।
  2. डॉक्टर पीडित व्यक्ति की चोट का सार लिखेगा और डॉक्टर पीडित व्यक्ति से पूछेगा कि यह चोट हिंसा से आई आई है और अन्य चोटों का भी पता लगाने के लिए आपके शरीर के अंगों की जांच करेगा। चोट का विस्तृत बर्णन करेगा जैसे- आकार क्या है, जगह क्या है, आकृति क्या है, और चोट का क्या रंग हौ यह भी लिखा जाएगा।
  3. विवेचना में मदद के लिए फोरेंसिक साक्ष्य भी एकत्र किए जा सकते हैं इसमें कपड़े हटाना और अलग करना, सिर के बाल, शरीर में बाहरी तत्व, लार, प्राइवेट पार्ट के बाल, और मुंह से लार लिए गए नमूने व रक्त का नमूना  भी लिया जायेगा
  4. य़दि अपराध किसी महिला के खिलाफ हुआ है तो महिला डॉक्टर ही पीडित महिला व छोटी वच्ची जो 18 बर्ष से कम है का  चिकित्सीय परीक्षण करगी और ऐसी महिला डॉक्टर पीडित से प्रश्न पूछेंगी कि यह अपराध कैसे हुआ यह पूरी जानकारी महिला डॉक्टर लिखेगी और कोई चोट है तो चोट का विस्तृत बर्णन भी करेगी।
  5. ऐसी महिला डॉक्टर पीडित से हमले के बाद की जानकारियां भी पूछ सकती है जैसे क्या आपने कपड़े बदले, स्नान, मूत्र त्याग, मल त्याग, नहाकर आयी हो, प्राइवेट पार्ट धोएं, मुंह का कुल्ला किया, कुछ खाया या पिया है क्योंकि इन गतिविधियों का साक्ष्य एकत्र करने में प्रभाव पड़ता है। ये गतिविधियां साक्ष्य नष्ट कर सकती हैं।
  6. अगर वीर्य (सीमन) का पता लगाने के लिए प्राइवेट पार्ट से नमूना लिया गया है तो परीक्षणकर्ता रिकॉर्ड के लिए पूछेगा कि आपने बीते सप्ताह आखिरी बार कब सहमति से यौनाचार किया था।
  7. यदि अपराध छोटी वच्ची जो 18 बर्ष से कम है के विरुध हुआ है तो  ऐसी महिला डॉक्टर  परीक्षण , इलाज और साक्ष्य एकत्र करने के लिए सहमति लेगी। अगर पीडित 12 वर्ष से कम आयु की बच्ची हैं तो आपके माता-पिता या संरक्षक से सहमति ली जाएगी।
  8. टू फिंगर टेस्ट कानून के खिलाफ है और इसे भारत का सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक घोषित कर चुका है।
  9. यदि पीडित महिला व छोटी वच्ची जिसके साथ ऐसा दुष्कर्म  हुआ है उसे मुफ्त इलाज लेना आपका अधिकार है। दुष्कर्म से पीडित कोई भी  महिला व छोटी वच्ची हैं तो वह सभी निजी व सरकारी अस्पताल मुफ्त में तत्काल प्राथमिक उपचार या इलाज उपलब्ध कराएंगे (Cr.P.C. की धारा 357C)।
  10. आपराधिक विधि संशोधन कानून 2013 के बाद से अस्पताल प्रभारी चाहे वह सरकारी अस्पताल का हो या निजी अस्पताल का यदि ऐसा इलाज मुहैया न करापाया तो उसे 1 वर्ष तक का कारावास और  जुर्माना अथवा दोनों से दण्डित किया जायेगा। (IPC की धारा 166 B)। Cr.P.C. की धारा 357C के मुताबिक दुष्कर्म का अपराध होने की सूचना पुलिस को देना सभी अस्पतालों और डॉक्टरों का वैधानिक कर्तव्य है।
  11. पॉक्सो कानून की धारा 19(1) के तहत सभी लोगों (जिसमें डॉक्टर व अस्पताल शामिल हैं) का कानूनी दायित्व है कि वे किसी बच्ची से हुए दुष्कर्म या यौन अपराध की सूचना पुलिस या S.J.P.U. को दें। चाहे  बालिग महिला हों या बच्ची या दुष्कर्म पीड़ित बच्ची के माता-पिता अथवा संरक्षक, अगर  अपराध की सूचना पुलिस को नहीं देना चाहते तो अस्पताल या डॉक्टर को सूचित करेंगे। ऐसा इन्कार करना कानून के मुताबिक पुलिस / एस. जे. पी. यू. को सूचित किया जाएगा।
  12.  ऐसी स्थिति भी आ सकती है जिसमें संबंधित डॉक्टर, पीडित के इन्कार पर विचार करने की स्थिति में न हो जैसे कि अगर आपको जानलेवा चोट लगी है तब सूचना देने और अपराधी के खिलाफ कार्रवाई करने के कर्तव्य के सामने पीडित के निजता का अधिकार समाप्त हो जाता है। चोट मानवघाती आत्मघाती, जानलेवा या किसी और प्रकार की हो सकती है। ऐसी स्थिति में पीडित पुनर्वास के लिए सलाह या सामाजिक सेवा का प्रस्ताव दिया जा सकता है।
After Investigation in Procedure of criminal case।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में अन्वेषण या जांच पूरी होने के वाद। 
  • जांच या अन्वेषण(Investigation) पूरा होने के बाद पुलिस रिपोर्ट  फाइल की जाती है जिसे Charge Sheet कहा जाता है तब  जांच या अन्वेषण संपन्न हुआ माना जाता है। और जब पुलिस अभियोजन चलाए जाने की सिफारिश करती है और अपराध की पड़ताल के लिए ट्रायल की शुरुआत होती है।
  • यदि  पुलिस अपनी रिपोर्ट में अभियोजन नहीं चलाए जाने की सिफारिश करती है तो उसे “Final Report’ कहा जाता है।अगर क्लोजर रिपोर्ट दाखिल होती है अगर पुलिस किसी अभियुक्त के खिलाफ अभियोजन न चलाने की सिफारिश करती है या एक भी आरोप खत्म करने की पेशकश करती है तो पीडित मजिस्ट्रेट के समक्ष अपना मामला पेश करने और पुलिस की सिफारिश का विरोध करने का अधिकार है। मजिस्ट्रेट पुलिस की सिफारिश खारिज कर सकता है अगर रिकॉर्ड पर अभियुक्त को दोषी साबित करने वाले दस्तावेज या सामग्री मौजूद है ।
  • जब चार्जशीट में किसी व्यक्ति के अपराध में शामिल होने का पता चलता है, लेकिन उसे अभियुक्त न बनाया गया हो तो मजिस्ट्रेट संज्ञान लेते समय केवल उन्हीं लोगों को सम्मन भेजने के लिए बाध्य नहीं है जिनके लिए पुलिस ने सिफारिश की हो। मजिस्ट्रेट उन लोगों को भी सम्मन कर सकता है जो चार्जशीट पढ़ने पर अपराध में शामिल होने की  जिनकी भूमिका परिलक्षित होती है। इसलिए जब चार्जशीट के साथ दाखिल की गई तथ्य सामग्री से किसी के खिलाफ मामला बनता हो और पुलिस ने उसे अभियुक्त न बनाया हो तब पीडित व्यक्ति मजिस्ट्रेट से उस व्यक्ति  कोअभियुक्त के तौर पर शामिल करने के लिए और मजिस्ट्रेट के समक्ष उसको पेश करने के लिए, प्रक्रिया शुरू करने का अनुरोध कर सकता हैं।
  •  यदि पीडित के द्वारा आगे जांच के लिए अनुरोध  किया गया है और यह भी दर्शाया गया है कि जांच में पुलिस ने कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर बिलकुल  ध्यान नहीं दिया गया है या फिर उसमें कुछ नए तथ्य का पता चला है तो मजिस्ट्रेट पक्ष को सुनने के बाद आगे जांच के आदेश दे सकता है और उसके पूरा होने पर उचित कार्रवाई के लिए मजिस्ट्रेट के समक्ष एक अतिरिक्त रिपोर्ट (Supplementary Charge Sheet) दाखिल की जायेगी।
  • यदि  चार्जशीट के आधार पर केस में अभियुक्त पर पूरी तरह शिकंजा नहीं कसा जा सकता तो पीडित पक्ष  प्राइवेट शिकायत दाखिल करने पर भी विचार कर सकता है। ऐसी स्थिति में,  प्राइवेट इन्क्वायरी के जरिए पुलिस जांच की अनुपूरक (सप्लीमेंट) बना कर अदालत के सामने अतिरिक्त साक्ष्य के रुप में पेश करसकती हैं।
Role of Public Prosecutor in Procedure of criminal case।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में  सरकारी वकील (लोक अभियोजक)
  1. जब पुलिस रिपोर्ट या चार्जशीट पर कोई केस शुरू होता है तो सरकारी वकील केस का प्रभारी होता है और अभियोजन का पक्ष पेश करता है। कानूनी मदद दे रहा वकील या आपका अपना निजी वकील, सरकारी वकील के तहत काम करते हुए उसे मदद कर सकता है। आपका निजी वकील या कानूनी मदद देने वाला वकील ट्रायल कोर्ट की अनुमति से अभियोजन की मदद कर सकता है।
  2. जब क्लोजर रिपोर्ट दाखिल हुई हो जब पुलिस फाइनल रिपोर्ट दाखिल कर अभियोजन न चलाने की सिफारिश करती है तब मजिस्ट्रेट पीड़ित और अपराध की पहली सूचना देने वाले का पक्ष जरूर सुनेगा। अगर मजिस्ट्रेट पीड़ित का पक्ष सुनने के बाद फाइनल रिपोर्ट या केस डायरी में दिए गए तथ्यों और सामग्री के आधार पर अपराध पर संज्ञान लेता है तो सरकारी वकील फिर से केस के प्रभारी का कामकाज संभाल लेगा।
  3. अभियोजन चलाने की अनुमति राज्य द्वारा विशेष तौर पर मजिस्ट्रेट के समक्ष चलाए जा रहे किसी केस के अभियोजन में मजिस्ट्रेट चाहे तो विशेष परिस्थितियों में किसी निजी व्यक्ति को अभियोजन चलाने की अनुमति दे सकता है।
  4. सत्र अदालत द्वारा विचारणीय शिकायत के मामले में प्रभारी सरकारी वकील होगा शिकायतकर्ता और उसका वकील मजिस्ट्रेट के समक्ष तब तक अभियोजन चला सकता है जब तक कि केस सत्र अदालत को न कमिट (भेजा जाए) हो। सत्र अदालत को केस कमिट होने के बाद सरकारी वकील ही अभियोजन का प्रभारी होगा कोई भी अन्य वकील सिर्फ सरकारी वकील की मदद कर सकते हैं।
  5. गंभीर मामलों में प्रभावी ढंग से अभियोजन चलाने के लिए विशेष लोक अभियोजक सरकार विशेष लोक अभियोजक (विशेष सरकारी वकील) नियुक्त कर सकती है, और पीड़ित को भी इसके लिए सरकार को सक्षम वकील के नाम का सुझाव देने की इजाजत है।
  6. पॉक्सो कानून की धारा 32 के तहत बाल यौन दुर्व्यवहार के मामलों में राज्य सरकारों को विशेष लोक अभियोजक नियुक्त करना जरूरी है। अगर विशेष लोक अभियोजकअनुपस्थित है या उपलब्ध नहीं है तो केस का प्रभारी लोक अभियोजक (सरकारी वकील) उसकी अनुपस्थिति में अभियोजन चला सकता है।
  7. सहायक लोक अभियोजक लिखित दलीलें दाखिल कर सकता है मामले में साक्ष्य पूरे होने के बाद सहायक लोक अभियोजक Cr.P.C. की धारा 301 (2) के तहत लिखित दलीलें दाखिल कर सकता है। पीडित भी अपने निजी वकील को लिखित दलीलें दाखिल करने का निर्देश दें।
  8. साक्ष्य पूरे होने के बाद अदालत की अनुमति लेकर  पीडित की ओर से दाखिल की गई लिखित दलीलें ट्रायल कोर्ट को इस बात के लिए सहमत करने में अहम साबित हो सकती हैं कि अभियुक्त दोषी ठहराए जाने लायक है। लिखित दलीलों में निम्न बातें बताई जानी चाहिए-
  • अभियोजन के साक्ष्यों का विश्लेषण करके यह दिखाएं कि क्यों इन पर भरोसा किया जाना चाहिए और किन छोटे-मोटे विरोधाभासों को नजरअंदाज कर दिया जाना चाहिए।
  • अभियोजन की ओर से पेश साक्ष्य किस तरह से अभियुक्त के दोषी होने का समर्थन करते हैं।
  • अगर कोई गवाह अदालत में मुकर गया है तो उस मुकर चुके गवाह के बयान के ये हिस्से जिन पर भरोसा किया जा सकता हो।
  • Cr.P.C. की धारा 313 के तहत दिए गए अभियुक्त के बयान का कौन सा हिस्सा उसकी अपराध में संलिप्तता स्वीकार करता है और कौन सा हिस्सा अस्पष्ट या अतार्किक हैं जिन्हें अभियोजन के साक्ष्यों के साथ रखकर देखने से उसकी दोष सिद्धि साबित होती है।
  • अभियुक्त को दोषी साबित करने वाली आपकी दलीलों का समर्थन करने वाले पूर्व फैसलों में दी गई व्यवस्था का स्पष्ट वर्णन।
  • Cr.P.C. की धारा 357 (1) के तहत अभियुक्त को मुआवजा अदा करने का निर्देश दिए जाने की मांग। यह मुआवजा या तो जुर्माने की रकम से दिलाया जाए अथवा धारा 357 (3) के तहत बगैर जुर्माना लगाए, जैसा भी उचित हो।
Role of DLSA in Procedure of criminal case।आपराधिक मामलेकी प्रक्रिया में DLSA भूमिका।

यदि कोई वकील का खर्च नहीं उठा सकती तो सरकार की तरफ से विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 के तहत सभी व्यक्ति   कानूनी सहायता पाने के हकदार हैं। वकील के लिए अपने राज्य के राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण (स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी) से संपर्क कर सकती हैं। विकल्प के तौर पर, आप कानूनी सहायता देने वाले एनजीओ (गैर सरकारी संगठन) से संपर्क कर सकती हैं और अपने लिए एक प्राइवेट वकील मांग सकती हैं या फिर कम फीस अथवा उचित फीस लेने वाला वकील भी कर सकती हैं।राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण या कानूनी सहायता देने वाला एन.जी.ओ. आपको जांच से लेकर ट्रायल पूरा होने तक की न्यायिक प्रक्रिया से परिचित कराने की कानूनी सलाह भी दे सकता है। पीडित स्वयं के लिए यह जानकारी भी ले सकता हैं कि कौन से कानूनी आदेश या प्रक्रिया को आप चुनौती दे सकती हैं।

Challenging Order in Procedure of criminal case।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में आदेश को चुनौती। 
  1. सामान्य तौर पर अपील का अधिकार ट्रायल के बाद अंतिम फैसला आने के बाद होता है।हालांकि उससे पहले भी पीडित किसी भी आदेश की वैधता या अभियोजन की अनियमितता को पुनरावलोकन (रिवीजन) याचिका दाखिल कर चुनौती दे सकते हैं। हालांकि, वे आदेश अंतरिम (इन्ट्रोलोकेटरी) नहीं हो सकते, जो कि अतःस्थायी या थोड़े समय के लिए होते है और अंतिम नहीं होते।
  2. यदि  जांच अधिकारी ने अपने कर्तव्य का निर्वहन नहीं किया है और अभियुक्त की मदद की है तो पीडित अभियुक्त की जमानत या अंतरिम जमानत का विरोध करने के लिए मामले में हस्तक्षेप कर सकता है। इसके अलावा जमानत या अंतरिम जमानत का जो आदेश रिकॉर्ड पर मौजूद तथ्यों और सामग्री को नजर अंदाज करके पारित किया गया है उसे भी पीडित चुनौती दे सकता है।
  3. यदि जमानत या अंतरिम जमानत का आदेश देते हुए अभियुक्त पर जरूरी शर्तें नहीं लगाई गई है तो पीडित हाईकोर्ट में आवेदन कर सकती हैं और हाईकोर्ट से Cr.P.C की धारा 482 की सन्निहित शक्तियों के तहत अभियुक्त पर जरूरी शर्त लागू करवाकर पूर्ण न्याय प्राप्त कर सकता हैं।
  4.  इन्वेष्टिगेशन याअन्वेषण के दौरान दिए गए आदेशों को पीडित चुनौती दे सकती है।Cr.P.C की धारा 397(2) किसी अपील, इन्क्वायरी, ट्रायल या अन्य प्रोसीडिंग्स में दिए गए अंतरिम आदेशों के रिवीजन पर रोक लगाती है। इन्वेष्टिगेशन इसके दायरे से बाहर है।
  5. अपराध का संज्ञान न लिए जाने के आदेश को पीडित हाईकोर्ट में चुनौती दे सकता हैं। वह दलील दे सकता हैं कि आदेश पलटने के लिए पर्याप्त तथ्य और सामग्री है।
  6. अभियुक्त के पेश होने के बाद जब उसे गवाहियों और दस्तावेजों की प्रतियां मिल जाती हैं तो उसे अधिकार है कि वह मजिस्ट्रेट या सत्र अदालत से अपने को अपराध मुक्त करने का अनुरोध करे। अगर अदालत उसका अनुरोध स्वीकार कर लेती है तो पीडित रिवीजन दाखिल कर उस आदेश को हाईकोर्ट में चुनौती दे सकती हैं।
Trial in Procedure of criminal case।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में विचारण

ट्रायल आपराधिक अभियोजन का महत्वपूर्ण भाग है। ज्यादातर मामलों में अदालत में दर्ज किए गए साक्ष्य ही अभियुक्त को दोषी ठहराने या बरी करने के अंतिम फैसले का आधार होते हैं।ट्रायल में निम्न लिखित बातो का ध्यान रखा जाए:

  1. याददाश्त ताजा करें गवाह के कठघरे में जाने और शपथ लेने के बाद पीडित अपने पूर्व बयानों के बारे में याददाश्त ताजा करने का हक है। इसमें वह बयान भी शामिल है जो सी.आर.पी.सी. की धारा 161 के तहत पुलिस को दिया गया था। अगर साक्ष्य (गवाही) अपराध घटित होने के बहुत अर्से बाद दर्ज किया जा रहा है तो आपको आगे साक्ष्य देने से पहले अपनी याददाश्त ताजा करनी चाहिए।
  2. असंगत सवाल नहीं पूछे जा सकते गवाही के दौरान सरकारी वकील ऐसे सवाल नहीं पूछ सकते जो जवाब की ओर संकेत करते हों। हालांकि बचाव पक्ष जिरह के दौरान पीडित से ऐसे सवाल कर सकता है।
  • कोर्ट ऐसे सवाल पूछने से मना कर सकता है जो अशोभनीय और अपमानित करने वाले हों और जिनका तथ्यों और मुद्दों पर सीधा प्रभाव न पड़ता हो।
  • परेशान करने की मंशा से या आक्रामक ढंग से अपमान करने वाले सवाल पूछने से मना किए जा सकते हैं।
  • ट्रायल कोर्ट तय करता है कि गवाह से किस तरह के सवाल नहीं पूछे जाएंगे।
  • संभव है कि जिरह के दौरान बचाव पक्ष का वकील गवाह के तौर पर आपकी विश्वसनीयता खत्म करने वाले सवाल पूछे, अतः आप जहां तक संभव हो मामले के तथ्यों के साथ समरूपता बनाए रखें।

3.जब कोई गवाह बोलने में असमर्थ हो तो वह अपनी गवाही किसी भी समझने लायक तरीके से अदालत में दे सकता है. लिख            कर या संकेतों द्वारा इसे मौखिक गवाही माना जाएगा या अगर वह बोलकर अपनी बात नहीं बता सकतe तो वह व्याख्याकार           (इंटरप्रेटर) की मदद या विशेष प्रशिक्षक की मदद से बता सकती है (Evidence Act की धारा 119 ) ।

4.ट्रायल के दौरान आपका मुख्य काम है गवाही और साक्ष्य देना लेकिन आपको इस बारे में भी जानकारी रखनी होगी कि                   ट्रायल कैसा चल रहा है। किस गवाह ने अभियोजन के केस का समर्थन किया है और जिरह का सामना कर गया तथा कौन              सा गवाह मुकर गया है। या उसने अभियोजन के केस में संदेह पैदा किया है। यह भी पता रखें कि अभियोजन के किस गवाह            का परीक्षण नहीं हो पाया क्योंकि उसने दिए हुए पते पर रहना छोड़ दिया है और नया पता सूचित नहीं किया है। ऐसी स्थिति            में आप निम्नलिखित तरीके से अभियोजन की मदद कर सकता हैं:

  • अगर गवाहों को भेजे गए सम्मन उन पर तामील हुए बगैर वापस आ गए हैं क्योंकि वे वहां नहीं मिले, और आप उनमें से किसी भी गवाह का पता जानते हैं, तो अदालत को लिखित रूप में जानकारी दें ताकि वह गवाह की उपस्थिति निश्चित कर सके।
  • अगर कोई महत्वपूर्ण गवाह है और अभियोजन पक्ष ने उसे गवाह नहीं बनाया है तो पीडित अदालत को सूचित करें और उससे गवाह को सम्मन कर बयान (साक्ष्य) दर्ज कराने का अनुरोध करें।
  • पीडित अपने वकील को निर्देश दे सकती है कि वह अदालत के परीक्षण के दौरान अभियुक्त से पूछे जाने वाले सवालों को तय करने में अदालत की मदद करें ताकि अभियोजन के साक्ष्य पूरे होने के बाद अभियुक्त को दोषी साबित करने वाले सभी तथ्यों और परिस्थितियों को उसके सामने रख कर उन पर उसकी स्पष्ट और निश्चित सफाई ली जा सके।
  • अगर अभियुक्त अपने बचाव में साक्ष्य पेश करना चाहता है और अपने गवाहों की सूची दाखिल करता है तो पीडित उन गवाहों के बारे में कोई प्रासंगिक सूचना जानती हैं तो पहले से ही अपने वकील को उसके बारे में बताएंगी। आपका वकील अपनी बारी आने पर इस बारे में सरकारी वकील (लोक अभियोजक) को बताएगा ताकि वह बचाव पक्ष के गवाह से प्रभावी ढंग से जिरह कर सके।
Acquittal or Convection in Procedure of criminal case।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में दोषमुक्त या दोष सिद्धि 

ट्रायल के समाप्त हो जाने के बाद न्यायालय दोनों पक्षों को सुनेगी और  मामले के गुण और दोष के आधार पर न्यायालय फैसला करगी है। यदिअभियुक्त के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य मौजूद नहीं है तो न्यायालय अभियुक्त कोदोषमुक्त कर देगी और यदिअभियुक्त के खिलाफ पर्याप्त साक्ष्य मौजूद  है तो न्यायालय अभियुक्त को दोषसिद्धि कर देगी। जब न्यायालय के द्वाराअभियुक्त को दोषसिद्धि कर दिया जाता है तो सजा पर वहस के लिए अगली तारीख दी जाती है।

Sentence after Convection in Procedure of criminal case।आपराधिक मामले की प्रक्रिया में दोष सिद्धि के बाद सजा:

दोष सिद्धि के बाद, अभियोजन पक्ष गंभीर मामलों के लिए कड़े दंड की मांग करता है। लेकिन सामान्यतः चलन यही है कि सजा कितनी होगी यह अदालत तय करती है। दोष सिद्धि के बाद अदालत अभियुक्त को उसके प्रति सजा में नरम रुख अपनाने के लिए सामग्री पेश करने का एक मौका देगी और अगर उसकी ओर से पेश साक्ष्य (गवाही) में उसके अच्छे चरित्र का सबूत दिया गया है तो उन गवाहों से जिरह की जा सकती है और उस समय अभियुक्त का बुरा चरित्र एक सुसंगत तथ्य होगा।

निष्कर्षः

इस लेख के माध्यम से आज हमने पूरे  Procedure of criminal case।आपराधिक मामले की प्रक्रिया किया होती है और पुलिस विभाग के माध्यम से,अभियोजन पक्ष (लोक अभियोजकों) के माध्यम से, दाण्डिक न्यायालय (न्यायाधीशों) के माध्यम से, इनके अतिरिक्त प्रतिरक्षा के वकील (Defence Counsel) तथा जेल के प्राधिकारी (Jail Authorities) भी के क्रियान्वयन में क्या-क्या योगदान रहता हैं के बारे में विस्तार से बताने का प्रयास किया गया है। यह तक लेख को पढने के लिए आप का बहुत-बहुत धन्यबाद।

FAQ:

Q1:यदि पुलिस FIR न लिखे तो कानून में क्या विकल्प है?

Ans:धारा 154 (3) के तहत अपराध का संक्षिप्त सार लिखकर डाक द्वारा पुलिस अधीक्षक के पास भेज सकता है और या  मजिस्ट्रेट के सामने प्राइवेट कम्पलेन्ट कर सकता है।

Q2:यदि पुलिस Rape Case FIR न लिखे तो क्या कानून है?

Ans:Rape एक संज्ञेय अपराध है और महिला पुलिस के द्वारा FIR अवश्य दर्ज करनी होगी। अगर ऐसा करने सा नाकाम रहे तो आपराधिक विधि संशोधन कानून लागू होने के बाद IPC में धारा 166A जोड़ी गई है जिसमें रेप केअपराधों की FIR दर्ज करने में नाकाम रहने पर,ऐसे पुलिस ओफीसर या लोक अधिकारी को  कम से कम 6 माह के कठोर कारावास के दंड का प्रावधान करती है जो बढ़कर 2 वर्ष तक का कारावास व जुर्माना भी हो सकता है।

Q3:यह कहाँ लिखा है कि महिला का चिकित्सीय परीक्षण एक महिला चिकित्सक ही करेंगी?

Ans:पॉक्सो कानून की धारा 27 (2) के तहत (अगर पीडित 18 वर्ष से कम उम्र की लड़की है ) तो चिकित्सीय परीक्षण महिला चिकित्सक ही करेंगी।

Q4:यदि बच्ची के माता-पिता या संरक्षक उसके साथ यौन दुर्व्यवहार कर रहे तो क्या होगा?

Ans:यदि बच्ची के माता-पिता या संरक्षक उसके साथ यौन दुर्व्यवहार कर रहे हैं तब उस बच्ची को काउंसलिंग के लिए भेजा जा सकता है और बाल कल्याण समिति (चाइल्ड वेलफेयर कमेटी) भी ले जाया जा सकता है।ऐसी  स्थिति में, सहमति हो या न हो, पुलिस / एस. जे. पी. यू. जरूर कार्रवाई करेंगे।

Leave a Comment